उपन्यास >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
दो शब्द . . .
हां... तब मैं भोली-भाली नादान लड़की थी... गांव की फुलवाड़ी पर नाचने वाली तितली... उस उद्यान की एक कोमल कली थी जिसे तुमने रास्ते का फूल समझ कर पांव से रौंद डाला... बुरा-भला कुछ भी तो ज्ञान न था मुझे... और नीच चाण्डाल! तूने मेरी इज्जत तक छीन ली...''
यह कहते-कहते वह क्षण-भर के लिए रुकी। उसकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं। यह बदले हुए तेवर देखकर प्रताप का कलेजा धड़का और वह संभल कर बैठ गया। गंगा उसके बिल्कुल समीप आ गई और आँखों से ज्वाला बरसाती हुई बोली, ''वही दफ्तर... वही तू है... मैं भी हूँ... अकेली हूँ; किन्तु अब मैं वह भोली गंगा नहीं... बुरा-भला समझने लगी हूँ... अब मैं वह अबोध लड़की नहीं... औरत हूँ... औरत... ले आज मुझे छू कर देख! तुझ में साहस है तो अब इस औरत पर हाथ उठा... पापी दुष्ट...'' प्रताप घबराकर इधर-उधर देखने लगा। उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया था और वह इस सिंहनी से बचने का उपाय सोच रहा था। गंगा फिर चिल्लाई, ''हां, हां! देखता क्या है... छूकर बता नीच कुत्ते... कहाँ है तेरा साहस...''
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